An Autobiography by my Aunt, JijiBai Maushi - Dr. Pushpa Mulik in Hindi
Book
मैं कैसी, ऐसी में
लड़का नहीं है, लड़कियां ही हुई
जन्म व बचपन
शिक्षण
पांचवी तक की शिक्षा
आठवीं से 12वीं
मेडिकल एमबीबीएस और स्नातकोत्तर
पोस्ट ग्रेजुएशन
शादी ( 1961)
संसार, नौकरी बच्चे
सेवानिवृत्ति
निवृत्ति के बाद।
Chapter 1
जन्म और बचपन
मेरे पूर्वज सावंतवाड़ी महाराष्ट्र के पवार थे। मां भवानी का एक टाक मतलब छोटी सी मूर्ति को अपनी जेब में रखकर शत्रु का
सामना करने वाले, हमेशा तैयार, यही उनका जीवन था।
मां भवानी पर उनका दृढ़ विश्वास था कि वह रक्षा करेगी और विजय दिलवाएगी।
स्याह रुख, बद वक़्त, गर्दन कटे, मर हटे या मार हटे, ना हटे, ना हटे, ना हटे, यह मराठों का वर्णन है।
मराठे कभी शत्रु को पीठ दिखाकर नहीं भागे। जीवन का दांव लगाकर लड़े या तो मर कर हटे, या फिर मारकर हटे।
पानीपत की लड़ाई से वापस आते समय मेरे परदादा कृष्णा जी पवार धार में आकर बस गए।
उन्होंने निर्णय लिया कि अब हिंसा नहीं करना । सात्विक भाव से देवी की सेवा व साधना करना है।
आगरा मुंबई मार्ग पर हरदा गांव में जमीन खरीद ली। यही पर पर घर बनाया। खेती की, और व्यापार किया।
भजन, पूजन इत्यादि मार्ग से देवी की साधना और सेवा करने लगे। बाद में इसी हरदा के घर में मेरा जन्म 20 सितंबर 1934 को हुआ।
मेरे बाद दूसरे नंबर पे थे प्रफुल्ल कुमार। यह लड़का हुआ जो डेढ़ वर्ष तक ही जीवित रहा। मेरी मां को कुछ तेरह बार गर्भ रुका था।
चार लड़कियां जीवित रही, चार लड़के हुए लेकिन जीवित नहीं रहे। एक लड़की कम दिनों में होने से नहीं बची।
लड़का होने का रास्ता नहीं देखना । ऐसा पिताजी ने निर्णय लिया। परिवार नियोजन के लिए शस्त्र क्रिया कर वाली जो कि
तभी प्रचलन में आई थी। मै तब मेडिकल कॉलेज की छात्रा थी। उनके निर्णय की समझदारी को मैं समझ रही थी।
उनके विचारों को मैं जानती थी। परमेश्वर के इस आह्वान को स्वीकार करके अपनी लड़कियों को शिक्षित और लायक
बनाकर उन्हें लड़कों से भी अधिक सुयोग्य बनाना और अपने संगोपन देना है। यही उन्होंने सोचा था। मैं उनके इस निर्णय से
अत्यंत प्रभावित हुई थी। मेरा पिताजी के प्रति आदर द्विगुणित हो गया। पिताजी को मेरे वर्तन से अभिमान हो, ऐसा मैंने निर्णय लिया।
जब बचपन याद आता है तो वह यादें उभर कर आती है।
पहली याद एक फोटोग्राफर की है। फोटोग्राफर ने हम सब को एक लाइन में खड़ा किया और फोटो निकाला था।
फोटो में मैंने देखा कि मेरी नाड़ी फ्रॉक के बाहर नीचे लटक रही थी तो मुझे बहुत शर्म आई थी। दूसरी याद खुले मैदान में
रात के अंधेरे में चादर टांगकर सती अनुसुइया यह सिनेमा देखने की है। हमारे घर में बच्चों के लिए सिनेमा देखना वर्जित था,
परंतु इस सिनेमा का विषय ईश्वर और संत होने से हमें इसे देखने की अनुमति मिली थी। यह दोनों प्रसंग गर्मियों की छुट्टियों के हैं।
जब हम हरदा गए थे तब मेरे पिताजी ग्वालियर के किले पर सिंधिया स्कूल में, तब का सरदार स्कूल, में शिक्षक थे।
हम हर वर्ष गर्मियों की छुट्टी में दादी से मिलने हरदा जाते थे। दिनभर दोनों बुआओँ के बच्चों के साथ खूब खेलते।
लगता था कि दिन कितना छोटा है। बाजार में घंटाघर के पास नदी किनारे नर्मदा अमराई में आम के वृक्ष की छाया में
खेलना बहुत भाता था ।
घर में एक कमरे में, जमीन लेकर छत तक आम पकने के लिए रखे जाते थे। जैसे-जैसे आम पकते जाते थे, डालियो से
निकाले जाते पास में बाल्टी में पानी भरकर हम सब बच्चों की टोली खूब आम खाते। और कई कई घंटों तक गप्पे मारते।
रोज शाम को दादी मेरी और सब बच्चों की नजर उतारती । उन्होंने कभी भी अपने मुंह से हमारी तारीफ नहीं की।
उन्हें डर लगता था कि उनकी खुद की नजर ना लग जाए हमें।
छुट्टियों में और प्रसूति के लिए मां हरदा आ जाती थी। मेरी दादी एक नर्स ( तुलसी नाम ) की मदद से घर में ही प्रसूति करवा
लेती थी और सब व्यवस्थित संभाल लेती थी।
मै बिल्कुल छोटी थी तब तेली मंदिर के पीछे वाली बैरक में हमारा परिवार रहता था। सभी इमारतें अंग्रेज सैनिकों ने बनाई थी।
इसलिए बैरक कहलाती थी। किले में अंदर आते ही जो पहली बैरक थी उसे गद्दी बैरक कहते थे।
गर्मियों में सिंधिया की राजगद्दी यहीं पर रहा करती । तब मेरा दिन भर का कार्यक्रम रहता खेलना और बस खेलना,
ज्यादातर बेर इमली पीपल बड़, इत्यादि पेड़ों पर चढ़ना, खेलना और अम्मा के हाथ की मार खाना।
जहा भी चोट आती हम रास्ते की धूल उस पर लगा लेते। ज़ख्म अपने आप भर जाया करता था ।
कभी याद नहीं पड़ता कि ज़ख्म मैंने धोया हो, या दवाई लगाई हो।
एक बार बड़ी माता का टीकाकरण हुआ। फिर से दूसरा डोज़ नहीं लगा। बेर और इमली खूब खाने से खासी ठीक हो
जाया करती थी। यह हमारी रामबाण दवाई हुआ करती थी। स्कूल के डॉक्टर के बच्चे हमारे साथ ही खेलते।
उन्होंने भी कभी दवाई नहीं खाई। उस समय मेरे पिताजी महाद्जी हाउस में हाउस मास्टर बने और हम लोग लड़कों
के हॉस्टल में रहने आए।
हमारे घर के सामने रामरक्षा चबूतरा और धोबी तलाव था। इसी घर में मेरी शादी हुई और पहला बेटा होने के समय
मेरे पिताजी वाइस प्रिंसिपल बनें और हम बड़े से स्वतंत्र घर में रहने आए। महाद्जी हाउस में जीना चढ़कर जाने पर
महाद्जी लंगड़े का फोटो टंगा था। जीने की दीवार पर रविंद्र नाथ टैगोर की कविता “व्हेन द हेड इस हेल्ड हाई ” पूरी
लिखी हुई थी।
इसी कविता की पंक्ति “ फादर लेट माय कंट्री अवेक ” ने मेरे मन पर गहरी छाप छोड़ी थी। घर में लगा हुआ स्कूल
का रसोईघर और भोजन करने का हॉल था। घर के पीछे कुश्ती का अखाड़ा था जहां नियमित कुश्तिया हुआ करती थी।
उसी के पास बच्चों के नहाने घर भी बने हुए थे।
किले की दीवार के पास कर्मचारियों और धोबियों के घर बने थे। उनके घर और महाद्जी हाउस के बीच की ज़मीन पथरीली थी।
मेरे पिताजी ने उन पत्थरों को तोड़कर अच्छी मिट्टी डालकर गुलाब उगाए थे। हमारा बगीचा अत्यंत प्रेक्षणीय था।
यहां पर हर वर्ष दसवीं के बच्चों को स्कूल छोड़कर जाने के समय आइसक्रीम पार्टी दी जाती।
मेरी शादी ठहरने पर मेरे लिए शुभेच्छा पार्टी भी यहीं पर हुई थी। बाल्टी में बर्फ भरकर एल्युमिनियम के बर्तन
को हाथ से घुमाकर आइस क्रीम बनाया करते थे।
गर्मियों में इस बगीचे में हम शाम को बैठ जाते पलंग पर और तारों का निरीक्षण किया करते।
हमारे घर के सामने रास्ते में उस तरफ रामरक्षा चबूतरा और एक छोटा सा हनुमान जी का मंदिर था।
वह आज भी मौजूद है ( सन 2008 से 2016 )। शाम को सभी बच्चे सफ़ेद कुर्ता पजामा पहनकर इसी चबूतरे पर बैठकर
रामरक्षा कहते, और उसके उपरांत रात्री का भोजन करते।
अस्ताचल का अस्तित्व कई वर्षों बाद आया जहां पर अब शाम को प्रार्थना के लिए सभी एकत्रित होते हैं।
अस्ताचल किले की पश्चिमी प्राचीर के पास बना है। सूर्यास्त की पार्श्वभूमि महात्मा गांधी की भव्य मूर्ति
और शांत वातावरण मन को प्रार्थना में रत कर देते हैं। महात्मा गांधी की मूर्ति को पद्मा विद्यालय के प्रख्यात
शिल्पकार श्री रुद्र द्वारा बनाया गया था।
घर के सामने के रास्ते पर बाईं ओर सामने शिवाजी वह माधव हाउस थे। महाद्जी हाउस के पास ही मुख्य
अध्यापक का भव्य बंगला बना था।
और आगे जाने पर किले की प्राचीर के पास पैरापेट बना था। यह भाग ग्वालियर शहर में बने भव्य जय विलास
महल के सामने पड़ता था। वहा की तोप रोज 12:00 बजे रात्रि व 9:30 बजे दागी जाती। दशहरे को, और सभी
महत्वपूर्ण प्रसंगो पर इक्कीस तोपों की सलामी दी जाती। अब वही तोप रास्ते पर शोभा के लिए रखी है।
महाद्जी हाउस की दाईं ओर जाने पर दोनों तरफ क्रम से शिक्षकों के घर, डॉक्टर का घर, सिक रूम, ओपन एयर थिएटर,
राणोजी जयाजे हाउस, तरण तालाब बने थे। इसी के सामने सिंधिया स्कूल का मुख्य भवन और सभी क्रीडांगण बने थे।
आगे जाकर तेली टेंपल, गंगोला ताल, तानसेन स्मारक है। और है वह अत्यंत मिठास भरा इमली का पेड़ है
जहां बैठकर तानसेन रियाज़ करते।
और आगे गद्दी बैरक जूनियर स्कूल और किले के बाहर जाने के लिए चालू घाटी यानी उरवाई घाटी।
घाटी उतरने के बाद अत्यंत विशाल किले का द्वार बना था। घाटी की चौड़ाई कम होने से गेट का चौकीदार हैंडल
घुमा कर फोन द्वारा पूछता कि इधर से कोई बैलगाड़ी बस कार इत्यादि तो नहीं आ रहे हैं। तभी इधर से कोई वाहन जाने देता।
किले पर और आगे जाकर ग्वालियर घाटी बनी है। यह दुर्गम है, और वाहन यहाँ से नहीं जा सकते। यहां पास में ही
तानसेन की समाधि बनी है। इस घाटी पर पैदल ही आना जाना पड़ता। घाटी में किले की दीवार में बावड़ियां बनी है।
ऐसा लोग कहते थे की यहाँ पर भूत रहते हैं पर हमें कभी दिखे नहीं। लोग कहते थे कि चंबल के डाकू यहां पर बैठकर
अपनी लूट को बांटा करते ।
यह घाटी राजा मानसिंह के महल के पास से जाती है। इस महल में 5 मंज़िले है जिसकी दो मंज़िले जमीन के नीचे तलघर में है।
ऊपर की मंज़िलो पर सभी ओर से दिखाई देता था। जब यह ध्वज नीचे आ जाता तो महल की राजपूत स्त्रियाँ
समझ जाती कि पराजय हुई हैं और महल के अंदर जौहर कुंड में अग्नि जलाकर उसमें कूदकर जोहर कर लेती थी।
इस तरह अपनी आबरू की रक्षा करती। ग्वालियर घाटी की शुरुआत पर मृगनैनी का गुजरी महल बना हुआ था।
Chapter 3
यहां पर महारानी मृगनयनी के गांव राई से पानी लाया जाता था। अब यहाँ पर आर्कियोलॉजिकल म्यूजियम पुरातत्व स्थान है।
इसी के पास सिंधिया स्कूल के घोड़े रखने की घुड़साल है। मैंने भी घुड़सवारी सीखी थी
( दुर्ग पर कही भी खड़े रहे तो ऊपर अनंत आकाश दिखाई देता। अनजाने में ही वर्ष दर वर्ष बदलती ऋतुएँ मन पर
बिम्बित होती गई ) हमारे घरो के आसपास हर तरफ घना जंगल था।
गर्मियों में बेचैन होकर कई जानवर जैसे कि तेंदुआ इत्यादि अपने परिवार सहित घूमने निकलते व
हमारे बरामदे में आकर सोते। वे कुत्ते, भैंस के बच्चे इत्यादि को पकड़ कर खा जाते ।
कई बार कोई शिकारी उनका पीछा का शिकार भी करता।
Chapter 4
मेरी माँ सावली परन्तु तीखे नैन नक्श वाली थी। उनकी ऊंचाई अधिक नहीं थी। उनके चेहरे पर स्वाभिमान स्पष्ट झलकता था।
अपने पिताजी हमारे नाना जी का कर्नल होने का और अपने पति हमारे पिताजी के अत्यंत सात्विक होने का उन्हें अभिमान था।
अत्यंत ईमानदारी व्यवहार कुशल और प्रेम करने वाली ऐसी थी मेरी माँ।
मुझे याद आता है कि कम से कम दो परिवारों का भरण-पोषण मेरी मां पिताजी के निश्चित वेतन से कर लेती थी।
हमारे घर कई लोग जैसे कि दूध वाला, भाजीवाला, मिट्टी वाला, पानी भरने वाला, माली, धोबी घर में काम
करने वाला हरिजन इत्यादि आते रहते । हमारी मां उनको हमेशा खिला पिला कर ही भेजती थी। हमारे धोबी के
घर लड़के की शादी थी। उसने एक महीना पहले से मां को सूचना दी कि अक्का शादी में कढ़ी बनाने के लिए छाछ लगेगी
तो आप दही बचा कर रखना।
हमारे घर पर भैंस थी जो कि आठ सेर दूध देती थी। हमारी घर के दूध पर शादी का खाना पूरा हो गया था ये
मुझे अच्छी तरह से याद है । घर पर काम करने वाले हर एक को अचार और रोटी कम से कम मिलती ही थी।
मेरी माँ अल्प शिक्षित थी। मराठी चौथी क्लास तक ही पढ़ी थी। उन्हें मराठी लिखना और पढ़ना ही आता था।
परन्तु हमारे पिताजी की शिक्षा नीति के लिए उनके मन में अत्यंत आदर था।
इसलिए हम चारों लड़कियों को उन्होंने घर के काम, गहने इत्यादि को छोड़कर उच्च पढ़ाई लिखाई करने के लिए
पिताजी के साथ सहयोग किया। उनके साथ खड़े होकर समाज के प्रश्न चिन्हो का उत्तर दिया। हमारे मराठा समाज
में उस समय बहुत ही पिछड़ा हुआ वातावरण था और लड़कियों की शादी कर देना ही पलकों की कर्तव्य की इति होती थी।
इसलिए लड़कियों को खाना बनाना, ससुराल वालों को खुश करना इत्यादि ही सिखाने की ओर ध्यान दिया जाता था।
लड़कियों के लिए पैसा खर्च करने की अपेक्षा उसके लिए सोना खरीदने के लिए पैसा खर्च करना उपयुक्त समझते थे।
उनको लगता की लड़की की शादी में जब सोना दिया तो बहुत पैसे वाला पति उसे मिलेगा तो उसे किसी चीज की कमी
जीवन में नहीं रहेगी। बहुत पढ़ी-लिखी लड़की को पति अच्छा नहीं मिलेगा। ऐसा लोग सोचते थे। नौकरी जरूर मिलेगी। तो लड़की कमाई खुद कर पर खर्च करें। ऐसा हमारा समाज समझता था।
मेरी डॉक्टरी की पढ़ाई मेरे ननिहाल में रहकर पूरी हुई। मेरे नानाजी कर्नल दत्ताजी राव माधव राव काकड़े मेरे पिताजी से
पूर्णतया सहमत थे। उन्होंने मुझे स्वातंत्र और अनुशासन के सुंदर समन्वय से पाला। मेरी नानी का पूर्णतया विरोध था।
परन्तु वे घर ही घर में आलोचना करती और कुछ भी कर नहीं सकी ।
बाकी सब रिश्तेदार और समाज देख रहे थे की कब हमारी फजीहत होगी और हमें नीचा दिखा सकेंगे।
परन्तु मेरे माता पिता ने स्वतंत्रता और अनुशासन का सुन्दर संतुलन साधा था। मैं डॉक्टर बन गई और अस्पताल में
डॉक्टरी करने लगी। लोग आकर मेरी नानी से मेरे कौतुक और प्रशंसा करते। मेरी सदा विरोधी नानी घर के हल्दी,
कुमकुम इत्यादि समारोह में मेरी बढ़-चढ़कर जोर-जोर से हाथ हिला हिला कर मेरी प्रशंसा करती। उन्हें मुझ पर गर्व होने लगा था।
रिश्तेदारों में हर परिवार में कम से कम एक बच्चा मेरे हाथ का था। फिर मेरी शादी का प्रश्न आया। मेरी तरह हम चारों उच्च
शिक्षित बहनो की शादी लड़के वालों ने आगे बढ़ चढ़कर की । उन सभी को दहेज सोना चांदी मान पान कुछ नहीं चाहिए था।
सिर्फ मेरे पिताजी की हामी का शब्द चाहिए था। वो मेरे पिताजी ने हमसे पूछ कर उचित समय पर दिया।
मेरे पिताजी तीन भाइयों में बीच के भाई थे। हरदा के स्कूल में दसवीं तक शिक्षा हुई थी। दादाजी की ईमानदारी देवी पर
श्रद्धा और देवी की सात्विक सेवा यह गुण पिताजी में स्वाभाविक रूप से ही मिले थे। परन्तु वे आगे पढ़ाई भी करना चाहते थे।
एक दिन दोपहर के समय यह बातचीत शुरू हुई। मेरी बड़ी बुआ जी ने कहा की अब आगे और नहीं पढ़ना।
मेरे पिताजी ने अपनी थाली उठाकर फेंक दी और निर्णय बताया कि आगे जरूर पढ़ना है।
फिर ग्वालियर आ गए तब का विक्टोरिया कॉलेज अब महारानी लक्ष्मीबाई कॉलेज में प्रवेश का प्रयत्न कर प्रवेश पाया।
यहां से बी एस सी किया। हरदा उन्होंने छोड़ा नहीं। छुट्टी मिलते ही वे हरदा चले जाते ।
पास होने के बाद ग्वालियर के किले पर सरदार स्कूल में शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए। यह स्कूल तब नया ही खुला था।
प्रयोगात्मक रूप से उन्हें शुरुआत के 60 रूपए महीना ही वेतन मिलता था। ग्वालियर दरबार में सरदारों
ठिकानेदारो के बच्चे को युद्ध कौशल के वातावरण से निकालकर बदलते समाज के अनुरूप शिक्षण देकर संशोधन
कर सुयोग्य बनाना यह प्रयास श्रीमंत माधवराव सिंधिया का प्रथम का था।
महात्मा ज्योतिबा फुले ने शिक्षण की मुहीम शुरू की थी और वे यहाँ ग्वालियर महाराज से और बड़ौदा महाराज से
इस विषय में मिले थे। यह उनके चरित्र चित्रण में भी उद्धृत है । उस समय पढ़ने वाले बच्चों के जागीरदार, सरदार,
माता-पिता और पिछड़ा समाज इनका तीव्र विरोधी था।
इस शिक्षण के लिये, दूसरी ओर सुयोग्य शिक्षक और ध्येयवादी मैनेजमेंट के अभाव में, अस्तव्यस्त वातावरण में मेरे
पिताजी ने अपनी ईमानदारी, ध्येयवाद, कड़क अनुशासन प्रिय स्वभाव के कारण, सिंधिया स्कूल में शिक्षण की नीव
मजबूत करने में बहुत ही बड़ा योगदान दिया ।
वो लोकप्रिय कभी नहीं हुए परंतु हमेशा उन्होंने वही किया जो सही समझा और कभी जोड़ तोड़ की कोशिश नहीं की।
प्रत्येक विद्यार्थी के गुणों को उभारकर, सुयोग्य नागरिक बना सके - यही उनकी कोशिश रही । उन्हें शिक्षक समाज में
अत्यंत आदर से देखा जाता।
घर पर मुझे और हम चारों बहनों को उनसे डर तो लगता था परंतु आदर भी लगता। उनका क्रोध कड़क, अनुशासन,
कभी मीठा ना बोलना और गलत बात को कभी सही ना कहना, इस कठोर बाहरी आवरण के बावजूद उनके प्रेम भरे ह्रदय
की ठंडक हम तक पहुंची। उनके प्रेम के बारे में हमें कभी शंका नहीं हुई।
वे हॉकी और फुटबॉल के अत्यंत अच्छे खिलाड़ी थे और बच्चों को खेल के लिए प्रेरित करते। अपने भाई बहन घर इनसे
से बहुत लगाव था और हमेशा प्रयत्न करते कि कैसे उनका हित हो पर उन लोगों की तरफ से उन्हें योग्य प्रतिसाद नहीं मिला।
Chapter 5
यह स्कूल सिर्फ लड़को के लिए ही था। यहाँ पर हम लड़कियों को प्रवेश नहीं था। यहाँ पर लड़कियों के लिए
पाठशाला नहीं थी। सिंधिया स्कूल के ऑफिस में श्री खांडेकर थे। वे आकर हमें बाराखड़ी और पहाड़े पढ़ाते ।
जिन बच्चों को वहां के महंगे सिंधिया स्कूल में पढ़ना संभव नहीं था उन 10-12 बच्चों के लिए श्री खांडेकर ने,
तेली की लाट के पीछे भग्न अवशेषों पर एक पाठशाला शुरु की। मैं वहां रोज सुबह जाती थी।
हमारे धोबी का लड़का मारुति भी वहीं पढ़ता था। मुझे याद आता है कि मारूति ने 10 12 लाइनें लिखने में 40 गलतियां
कर दी थी और हमने उसका बहुत मजाक बनाया था। तो शुरू की पढ़ाई हमने ऐसे की।
पर घर पढ़ाई करने के लिए किसी ने नहीं कहा। छठी कक्षा में मै गोरखी महाराजा सिंधिया का पूजा घर के मराठा सरदार
जागीरदारों की लड़कियों के स्कूल में पढ़ी।
मेरे ननिहाल में रहकर इस स्कूल में पढ़ी। इस 1 वर्ष में मैंने सभी विषयों की पढ़ाई की।
साथ-साथ ड्रॉइंग की प्राथमिक परीक्षा भी पास की। गाना सीखने का बहुत प्रयास किया, परंतु सा तक ठीक से
नहीं गा सकी, तो फिर यह प्रयत्न ही छोड़ दिया। सरदार जागीरदारों की लड़कियां कसीदाकारी करती थी, वह देखा।
सिंधिया महाराज का पूजा घर देखा। ऐतिहासिक रोटी का टुकड़ा, दही, हांडी इत्यादि कार्यक्रम देखें।
सातवीं कक्षा के लिए पद्मा विद्यालय नामक स्कूल में प्रवेश मिला। विशेष बात यह थी कि इस स्कूल की बस
हमें ग्वालियर किले की तलहटी से लेने वाली थी और वापस यही छोड़ने वाली थी तो हमें बस आने के एक घंटा पहले
पैदल किले की घाटी उतर कर पहुंचना पड़ता था।माँ सुबह जल्दी उठकर बगीचे से ताजी सब्जी तोड़ती और सुबह
6:00 बजे हमारे लिए सब्जी रोटी का टिफिन तैयार कर देती थी।
घाटी से जाते समय हमारे साथ एक नौकर लाठी लेकर चलता। यदि तेंदुआ मिल जाए तो
उसको भगाने के लिए हमने कई बार तेंदुए की आवाज सुनी। पर कभी हमें डर नहीं लगा।
हमको यह पूरा विश्वास था कि हमारा नौकर लाठी से तेंदुए को भगा देगा। स्कूल से वापस आकर एक डेढ़ मील
किले की घाटी पैदल चढ़कर तब घर पहुंच पाते।
उस समय बड़ी भूख लगी रहती । हम लोग अपने खाने के डिब्बे खोलकर वही उरवाई घाटी के बाजू छाया में
बैठकर खाना खा लेते । इसके बाद घाटी चढ़ना शुरू करते। एक दिन हमें उस धनी झाड़ी में एक तेंदुआ दिखा।
वह बिल्कुल हिल नहीं रहा था। शायद मरा हुआ था। उसके पैर में बंदूक की गोली लगी हुई थी ।
तीन-चार दिन पहले उसका शिकार करने की कोशिश हुई थी पर वह जंगल में भाग गया। यह बात हमें मालूम थी।
हमने घर जाकर श्री बापूसाहेब अव्हाड को बताया। वो जीप लेकर आए और उस तेंदुए को जीप पर रखकर सब को
दिखाया और खुद की वाह वाही कराई। उस तेंदुआ का स्पर्श मुझे अब भी याद है।
नरम चमड़ी के नीचे कठोर कड़क कठिन स्पर्श।
Chapter 6
उस वर्ष 4 दिन संस्कृत सीखा और एक हफ्ता भर भरतनाट्यम सीखा।
शरीर को स्थिर रखकर गर्दन को दोनों तरफ हिलाना सिखा जो मुझे अब भी याद है।
पर पिताजी ने कहा, अपने घर आने की लड़कियां व्यासपीठ पर नहीं नाचती। इस तरह मेरा नृत्य बंद हो गया।
पद्मा विद्यालय में मेरी एक सहेली सरोज जाधव के साथ बाग में बैठकर में गप्पे लड़ाते।
इसमें कई बार कक्षाएं छूट गई । इस समय अवधि में कभी एक सिलाई की कक्षा में मैंने जो सिलाई सिखा
वह आज भी वैसे ही मुझे याद है। धागे की गठाने ना दिखे ऐसी व्यवस्थित सुंदर कढ़ाई मैंने सीखी।
तब में सातवीं कक्षा में थी। मेरी उम्र 13 वर्ष थी और अब मैं 75 वर्ष की हूं, लेकिन उस साल सरोज जाधव पास हो गई।
और मै ना पास हुई ! सरोज आठवीं कक्षा में चली गई और मैं सातवीं कक्षा में ही रह गई।
फिर इस साल मैंने खूब मन लगाकर पढ़ाई की और अच्छे नंबरों से पास हुई। मराठी और गणित में विशेष योग्यता
डिस्टिंक्शन मिला। एक प्याला और एक मराठी पुस्तक मुझे बक्शीश में मिला। यह वही समय था जब भारत आजाद हुआ था।
मध्यप्रदेश राज्य बन गया था। श्री तिवारी शिक्षण मंत्री बने। सिंधिया स्कूल देखने किले पर आए।
मुख्य अध्यापक श्री कृष्ण चंद्र शुक्ल के साथ किले से वापस जा रहे थे।
Chapter 7
आधी घाटी उतर गए थे तो उन्होंने देखा हम सब लड़कियां हंसते हंसते अपना बस्ता लेकर कड़ी धूप में
स्कूल से वापस आते समय किला चढ़ रहे थे। शुक्ला जी ने कार रोकी और हमें पास बुलाया।
मंत्री जी से बोले लड़कों के लिए अति उत्तम शिक्षा व्यवस्था आपने किले पर देखी। अब हमारी लड़कियों को देखो।
सुबह किला उतरकर स्कूल जाती है और दोपहर में किला पैदल चढ़कर और 1, 2 मील चल कर थक कर घर पहुँचती हैं।
उन्होंने कहा कि हमारी लड़कियों को भी अच्छा शिक्षण मिलता तो अच्छा होता।
वह क्षण हम लड़कियों के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ और हमें घर पर ही रह कर इसी स्कूल
में लड़कों के साथ शिक्षण लेने की अनुमति मिल गई। हम लड़कियों के लिए उत्तम शिक्षण की व्यवस्था हो गई।
शशि ठकार, मैं और मेरी छोटी बहन स्नेह लता, उषा छत्रे कुल पांच लड़कियों को पांच सौ लड़कों के स्कूल में प्रवेश मिला।
हम दोनों बहने रूढ़ीवादी खानदानी पर्दा करने वाले मराठा परिवार की लड़कियां थे।
500 अत्यंत पैसे वाले लड़कों के साथ सह शिक्षण और उनके वस्तिग्रह के पास घर में रहकर अपनी लड़कियों
को बिगड़ने नहीं देना। यह मेरे माता-पिता के सामने सामाजिक चुनौती थी। उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार किया और जीता भी।
सिर पर पल्लू हमेशा रखने की हमें आदत थी तो फिर हम दोनों सलवार कुर्ता पहने के नहीं? सिर पर दुपट्टा रखे कि नहीं?
लड़कों से बातें करें कि नहीं? स्कूल में वाद्य वृंद में वार्षिक उत्सव में सितार बजाने के लिए व्यास पीठ पर बैठे।
तो समाज की प्रतिक्रिया क्या होगी ? खेल के समय में हम लोग खेले कि नहीं ? सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग ले की नहीं?
ऐसे बहुत से कठिन प्रश्न हमारे माता-पिता के सामने आए और वह उसमें से राह निकालकर हम को
संस्कारित करते चले गए और हमें बनाया। समाज हम को ध्यान से देख रहा था कि कब अपयश आए।
तो यह प्रश्न और ऐसे ही अनेक समस्याओं से जूझते हुए मेरे माता पिता ने सब दृष्टिकोण से विचार करके निर्णय लिए।
इन्हीं निर्णयों में से हमारी संगोपना की नीति आकार में आई। हमें निर्णय लेने की पूर्ण स्वतंत्रता थी।
साथ हमको यह पूर्ण समझ रहती कि हमारे माता-पिता का ध्यान हमारे व्यवहार पर है तो हम स्व अनुशासित रहते।
हम लड़कों से बराबरी से हर बात करते परंतु कभी अनावश्यक बात करने की प्रवृत्ति नहीं आई।
हमारा व्यवहार संतुलित बना रहा। कुछ वर्षों बाद अपने आप ही यह समझ आई कि पुरुष यह कोई काल्पनिक स्वर्गदूत नहीं है।
लड़कियों की तरह ही प्राकृतिक नियमों से बना है। इसलिए लड़कों के बारे में संतुलित दृष्टिकोण बना। आगे के
डॉक्टरी व्यावसायिक जीवन में इस दृष्टिकोण का हमें बहुत उपयोग हुआ हमारे दैनंदिन जीवन शैली के मुख्य नियम यह थे ।
हम बहने जिन लड़कों के साथ पढ़ते थे, वे अत्यंत श्रीमंत परिवारों से थे और राजघराने से थे। उनकी तुलना में
हमारी पिताजी गरीब ही थे, परंतु हम बहने स्वाभिमानी जीवन जिए। कोई अभाव नहीं था। किसी का कर्ज नहीं था।
गुरु का पूर्ण मान सम्मान पिताजी को मिलता था। फैशन, मेकअप, गहने, व्यसन, ताश, जुआ, शराब, सिनेमा यह सभी वर्जित था।
ग्वालियर के किले पर होटल ही नहीं था। इसलिए हमेशा मां के हाथ का बना हुआ सात्विक शुद्ध अन्न ही खाया।
घर पर भैंस थी इसलिए दूध घी घर पर था। बाहर जाने का काम ही नहीं पड़ा। किले के जंगल में पेड़ पर चढ़कर
बेर इमली खाना यह रोज का कार्यक्रम था।
खांसी होने पर दो इमली ज्यादा और खटाई खाने से ठीक हो जाती थी। सारे फ्रॉक फट जाते थे और जगह-जगह फटे ही ही रहते।
हमारी खरोंचे रास्ते पर की धूल और सूखी मिट्टी डालकर ठीक हो जाती । कभी भी धनुर्वाद ( टिटनेस ) नहीं हुआ।
किले की दीवारों के चोर रास्ते और मानसिंह पैलेस की पांच मंजिलें हमें दौड़ने के लिए कम पड़ते।
शाला में सभी विषय बहुत अच्छी तरह पढ़ाई जाते। रोज के रोज होमवर्क किया की बस यही काफी था।
उसके अलावा पढ़ाई करने का किसी ने कहा नहीं और हमने करी नहीं। मेरे पिताजी मुझे गणित पढ़ाते थे।
उन्होंने सबसे पहली बार मेरी कक्षा ली और होमवर्क दिया। सब विद्यार्थी जानते थे कि मेरे पिताजी बहुत ही अनुशासन प्रिय थे।
अनुशासन कड़ाई से पालन कराते । इसलिए सभी विद्यार्थियों का ध्यान इस ओर था कि मेरे साथ उनका व्यवहार कैसा है।
पिताजी को खुश करने के लिए मैंने घर आते ही सर्वप्रथम होमवर्क किया और अपना कौतुक कराने के लिए
अपनी कॉपी उनके हाथ में दी।
पिताजी ने श्वेत धोती पहनी हुई थी । बिल्कुल देव मूर्ति ईश्वर का प्रतिरूप दिख रहे थे।
और जीना उतर कर नीचे भोजन के लिए आ रहे थे। आधे जीने में ही रुक कर मेरी कॉपी खोली, देखा और कमरे के कोने में फेंक दी।
मेरा चेहरा बिल्कुल उतर गया और यह भी समझ नहीं आया कि गलत क्या हुआ।
मेरे चेहरे के भाव पढ़ कर उन्होंने प्यार से मेरी पीठ पर हाथ फिराया और कहा कि जब तक हस्ताक्षर सुंदर नहीं होंगे,
मैं तुम्हारी कॉपी नहीं देखूंगा। आठ दिन के अंदर मैंने मोती जैसे अक्षर लिखना सीख लिया।
वो अक्षर आज भी वृद्धावस्था आने के बाद भी वैसे ही है । सब स्तुति करते है।
बच्चे भी कहते है की पत्र हाथ से लिखकर ही भेजें। टाइप किया हुआ नहीं।
Chapter 8
भूगोल में मेरे बनाए नक़्शे बहुत सुंदर होते और मुझे बहुत स्टार्स मिलते।
श्री खानोलकर ने इंग्लिश भाषा का और श्री रत्नाकर ने मराठी भाषा का सौंदर्य दर्शन कराया मुझे।
और दोनों भाषाओं के प्रति प्रेम निर्माण कराया। मेरा सबसे प्रिय दिन बुधवार होता था।
हर बुधवार को दोपहर छंद यानि हॉबी की कक्षा होती। कुल 22 विषय सिखाए जाते थे।
उनमें संगीत मूर्तिकला, शिल्पकला, सुतारकाम, केमिकल्स, कागज़ बनाना, बाटिक कपड़े पर और चमड़े, ऐरो मॉडलिंग इत्यादि थे ।
कोई किसी की पसंद की हॉबी ले सकता था। और कक्षा में जाकर आनंद और सौंदर्य का सृजन कर सकता था।
मै वॉटर कलर पेंटिंग करती। मेरे रेखांकित चित्र बहुत सुंदर थे। एक बार जनरल करिअप्पा ने वार्षिक
प्रदर्शनी में रखे मेरा मेरे द्वारा बनाए चित्र की बहुत प्रशंसा की थी। संगीत विभाग में मैं सितार बजाया करती।
और 5 वर्ष तक हर बार वार्षिक उत्सव में मैंने सितार बजाई ।
सितार मै अच्छी बजाया करती थी। संगीत विभाग में उपलब्ध सभी वाद्यों को बजाने का ज्ञान मुझे था।
कई वर्षों के बाद मेरे पतिदेव ने एक बार मुझसे पूछा कि इतने सारे विषय और थोड़े थोड़े सीखे तो इसका क्या फायदा।
मैंने उन्हें उत्तर दिया - यह सारे विषय वह खिड़कियां है जो मेरी पाठशाला ने मेरे लिए खोली है।
इन खिड़कियों से जब मैं झांकती हूं तो अस्तित्व के ईश्वर प्रदत्त बिखेरे अपरिमित उदार सौंदर्य का आशीर्वाद लेने
कि मुझे शक्ति और दृष्टि मिलती है और मेरी अतृप्त आत्मा तृप्त होती जाती है।
Chapter 9
कुशाग्र बुद्धि होने के कारण थोड़ी पढ़ाई करके भी मुझे हमेशा अच्छे नंबर मिलते परंतु नवी कक्षा में जाने के बाद और
वैसे भी पिताजी हमेशा कहते कि मेहनत और पढ़ाई की जगह कभी सिर्फ कुशाग्र बुद्धि नहीं ले सकती।
इसलिए अच्छे नंबर लाने के लिए बुद्धि के साथ कड़ी मेहनत आवश्यक है। मैंने निश्चय किया कि खूब पढ़ाई करूंगी।
तब दिवाली आने वाली थी। उस दिन पहली बार ऐसा हुआ कि मां मुझ से मदद मांगने आई और मैंने उनको मना किया।
मुझे इस बात का बहुत बुरा लगा था। परंतु मैंने उनसे कहा कि नहीं मुझे अच्छे नंबरों से पास होना है।
इसलिए मैंने खूब पढ़ाई करने का निश्चय किया है। तो मैं मदद करने नहीं आ सकती। वास्तव में मैंने मां को
घर के कामों में कभी मदद नहीं की। माँ ने उसके बाद कभी मदद नहीं मांगी ।
आस पड़ोस की स्त्रियां मां से कहती, लड़कियों को घर गृहस्ती के काम खाना बनाना, सिलाई बुनाई कढ़ाई
यदि नहीं आई तो उनकी शादी नहीं होगी। परंतु मेरे पिताजी कहते कि पहले इनकी पढ़ाई पूरी हो जाने दो शादी
होने के बाद सब काम अपने आप आ जाएगा। मेरी लड़कियों को घर का काम करने में कभी कोई संकोच या लज्जा नहीं लगती।
इस तरह से मेरी मां ने अकेले ही उस साल दिवाली की सब मिठाईयां बनाई और हम सब ने दिवाली मनाई।
Chapter 10
जब मेरी बहन छोटी थी तो माँ उसे अपना ही दूध पिलाती। दूध बॉटल से कभी नहीं पिलाया।
परंतु उस समय हमारी पाठशाला के प्रधानाध्यापक अंग्रेज थे, श्री पियर्स। उनकी पत्नी महाराष्ट्रियन थी श्रीमती अनु।
वे अपने बच्चे को हमेशा बोतल से ही दूध पिलाती। स्वतः कभी नहीं पिलाया । वह मेरी मां को भी हमेशा यही उपदेश देती,
परंतु मेरी मां ने उनकी यह सलाह कभी नहीं मानी। कई वर्षों के बाद जब मैं डॉक्टर बनी तब हमें यही निर्देश
डब्ल्यूएचओ द्वारा दिए गए कि बच्चे के लिए मां का दूध ही सर्वोत्तम है। बोतल से दूध पिलाने से अन्य कई नुकसान है।
यह बताया गया। तात्पर्य यह है की समय के साथ लोगों के बहकावे में बह जाना नहीं चाहिए ।
अपनी समझ का उपयोग करना चाहिए।
Chapter 11
मै 9 वीं कक्षा पास कर 10 वीं कक्षा में आई। अब मेरे पिताजी पूर्ण ध्यान रखते कि मैं पढ़ाई कैसे करती
हूं और मैं भी बिल्कुल एकाग्रता से पढ़ाई करती। दसवीं की परीक्षा पास आई । हमारे पेपर शुरू हो गए।
परीक्षा देने के लिए हमें वीसी हाई स्कूल जाना होता था, जो कि किले के नीचे शहर में था।
रास्ते में शिंदे की छावनी में सरदार फाल्के के बाड़े का हाथी हमें दिखाई देता। यदि वह हाथी सूंड
उठाकर सलामी देता तो हम यह सोचते कि हमारा पेपर अच्छा जाएगा और यदि वह हमारी तरफ पीठ करता तो
परीक्षा पत्र कठिन होगा और हमारा पेपर अच्छा नहीं जाएगा। यह हमारी बाल बुद्धि की समझ थी ।
परीक्षा होने के बाद गर्मी की छुट्टियों में हरदा गए। वहा पर मेरा परीक्षा परिणाम पता पड़ा। मै फर्स्ट डिवीज़न में उत्तीर्ण हुई थी।
गणित में 95% और भौतिकी में 85% नंबर मिले थे। विशेष योग्यता प्राप्त हुई थी। मै और परिवार के सभी लोग बहुत खुश हुए।
Chapter 12
दिसंबर महीने की कड़कड़ाती ठंड पड़ रही थी। तरणताल के समीप इमारत में विशेष कक्षा लग रही थी।
ठंड इतनी थी कि धूप भी ठंडी लग रही थी। लिखने के लिए उंगलियां भी नहीं चल रही थी। थोड़ी गर्मी आए
इसलिए मैदान में जाकर क्रिकेट खेलना शुरू किया। वर्ग बंधुओं के साथ एक घंटा क्रिकेट खेला।
मैंने एक रन बनाया और एक कैच लिया। फिर थोड़ी गर्मी शरीर में आने पर फिर से कक्षा की शुरुआत हुई।
ऐसे ही एक दिन थोड़ी देर हॉकी खेली और फिर थोड़ी गर्माहट आने के बाद फिर से कक्षा शुरू हुई।
जब परीक्षा परिणाम आया तब हम लोग हरदा में थे। वहां से चिट्ठी लिखकर रिजल्ट ननिहाल में बताना था।
मुझे ठीक से चिट्ठी लिखना नहीं आया। पिताजी की मदद लेकर मैंने चिट्ठी लिखी।
हरदा से वापस ग्वालियर आने के बाद मैंने भौतिकी, रसायन शास्त्र जीवविज्ञान, यह विषय लिए।
अब पढ़ाई करने की आदत लग गई थी। 11वीं और 12वीं इन्ही विद्यार्थियों के साथ पढ़ाई कर अच्छे नंबरों से पास हुई।
फिर यह विचार शुरू हुआ कि अब आगे क्या करना है। मुझे गणित बहुत पसंद था।
पर पिताजी ने कहा कि डॉक्टरी पेशा मेरे स्वभाव के अनुकूल है और मैं इसे परहित भी कर सकूंगी।
यह बात मुझे अच्छी लगी और सही भी थी। प्री मेडिकल परीक्षा पास की ओर फिर साक्षात्कार के लिए मुझे बुलाया गया।
Chapter 13
साक्षात्कार की प्रतीक्षा शुरू हो गई। तैयारी कुछ भी नहीं करनी थी। निश्चित समय पर मै पिताजी के साथ पहुंची।
केवल 5 लड़कियों का साक्षात्कार हुआ। दो-चार मिनट इधर उधर की बातें करके उन्होंने मुझसे मुख्य प्रश्न पूछा।
तुम्हारे डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए तुम्हारे माता-पिता बहुत पैसा खर्च करेंगे और कठिनाइयां उठाएंगे।
तुम्हारी पढ़ाई पूरी होने पर तुम्हारी शादी करेंगे।
ससुराल में यदि तुम्हारे पति या सास ससुर ने सहमति नहीं दी तो तुम नौकरी अथवा चिकित्सा सेवाएं नहीं दे पाओगी ।
फिर तुम्हारे माता-पिता के द्वारा की गई मेहनत, खर्च हुआ पैसा और हमारी मेहनत इन सब का कोई उपयोग नहीं रहेगा।
यह सभी बेकार हो जाएंगे। तो फिर तुम क्या करोगी? मैंने उन्हें उत्तर दिया।
इस मामले में मैं पति अथवा ससुराल पक्ष की बात नहीं मानूंगी।
उन्होंने क्या सोचा पता नहीं परंतु मुझे प्रवेश मिल गया मेडिकल कॉलेज में। कक्षा में हम पांच लड़कियां थे।
सुधा और सावित्री के पिताजी डॉक्टर थे। वे बहुत संपन्न परिवार से थी।
मैं साधारण परिस्थिति वाले लड़कों के स्कूल में पढ़ी हुई लड़की थी और हीरु और सिंधु गरीब घर की
लड़कियां थी और स्कॉलरशिप लेकर आई थी।
मेडिकल कॉलेज का पहला दिन था। सबसे पहले शपथ विधि हुआ।
चिकित्सक के जीवन का मूल्य और नीति हमें बताए गए। हम ने निश्चय किया कि हम आदर्श डॉक्टर बनेंगे।
वहां से बाहर निकलकर एनाटोमी डिसेक्शन हॉल देखने गए टेबल पर रखी बॉडी कैसी दिखती है और कैसे डिसेक्शन करते हैं।
यह देखने के लिए हम बहुत उत्सुक थे।
डिस्ट्रेक्शन हॉल में 10 टेब्लो पर 10 शव रखे थे जो अत्यंत कड़क हो चुके थे।
यह अपेक्षित ही था इसलिए डर नहीं लगा। दूसरे दिन पहली कक्षा लगी। हम में से प्रत्येक के पास सही तरीके
से डिसेक्शन करने के लिए एक चाकू और एक चिमटी थी और हमें किताब भी दी गई थी कि डिसेक्शन कैसे करना है?
Chapter 14
हम पांच लड़कियां थी इसलिए दो जोड़ियां तो बन गई। तीसरी जोड़ी के लिए मेरे साथ कोई नहीं था।
तो मेरे साथ एक लड़के को मुझे जोड़ीदार बनाना पड़ा। और कोई भी लड़की लड़के के साथ काम करने को तैयार नहीं हुई।
हमने काम शुरू किया। बीच-बीच में हमारे प्रोफेसर और डेमोंस्ट्रेटर आकर निर्देश देते जाते थे।
पहली कक्षा पूरी हुई। मैंने अपनी चिमटी और छुरी धोकर बाजू में रख दी । बाद में हाथ धोकर जब देखने गई तो
देखा वहां छुरी और चिमटी नहीं थे। सबको पूछा परंतु किसी ने भी नहीं बताया। तब मै प्रोफेसर साहब के पास गई
और शिकायत करी । जब उन्होंने जाकर पूछताछ करी तो लड़कों ने कहा कि सब को पार्टी चाहिए। मैं
पार्टी देने को तैयार नहीं हुई।
मैंने प्रोफेसर साहब से कहा कि अगर पार्टी ही देनी होती तो मैं आपको बताने क्यों आती है। यह शिकायत क्यों करती।
इसका फायदा क्या हुआ। अगर आपको मैंने बताया है तो आपको पता करना चाहिए कि किसने यह किया है। यह शैतानी करी है ।
इस घटना के बाद किसी ने कभी मुझसे कोई शरारत नहीं करी।
कई दिनों के बाद यह पता लगा जब विश्लेषण करते समय एक बार अचानक एक शव का हाथ उठा और एक विद्यार्थी
के चेहरे पर थप्पड़ लगा तो वह विद्यार्थी भूत भूत चिल्लाता हुआ जो भाग कर अपने घर गया तो फिर कभी आया ही नहीं।
दूसरी बात ऐसी की क्योंकि मैं एक लड़के को जोड़ीदार बनाने को तैयार हो गई थी और सभी लड़को से बराबरी
से बात करती तो सर्वसाधारण यह समझते कि मैं शीलवान नहीं हूं, परंतु बाद में उनको यह समझ में आया कि मैं
लड़कों से बराबरी से बात करती हूं क्योंकि मैं लड़कों के स्कूल में पढ़ी और मेरे लिए लड़का या लड़की यह होना
कोई महत्वपूर्ण नहीं था।
महत्वपूर्ण यह था कि हम बराबरी से लड़कों के साथ में बात करते और बराबरी से उनके हर चीज में साथ में
हम खड़े रहते आंख से आंख मिलाकर बात करते हम अपने आप को लड़की है इसलिए कम नहीं समझते थे।
मेरे ननिहाल में रहकर मैंने पढ़ाई की। मेरे नाना जी कर्नल दत्ता जी राव माधवराव काकड़े का बहुत बड़ा घर कंपू लश्कर में था।
मैंने वही रहकर मेडिकल की पढ़ाई करी ।
बड़ा कुटुंब था जब मेरी मां 3 साल की और मामा 5 साल के थे तब हमारी नानी का स्वर्गवास हो गया था।
उसके बाद नानाजी ने दूसरी शादी करी। दूसरी नानी जी को चार लड़के और एक लड़की हुई।
मेरे नाना जी मेरी मां का और बड़े मामा श्री गोविंद राव बहुत ध्यान रखते की उनको कोई तकलीफ ना हो।
मेरी भी तरफ उनका पूरा ध्यान रहता।
Chapter 15
आज मैं जिस मुकाम पर हूं जैसी भी हूँ तो ऐसी ही हू। अब पचहत्तर वर्ष की हो गई हूं। सेवानिवृत्ति होकर
16 वर्ष हो गए हैं। स्वतः के घर में कंपनी की वसाहत के सामने रहती हूं। कंपनी की तरफ से मिलने वाली
सभी सुविधाओं का लाभ लेती हूं। तीनों लड़के बहुएं और बच्चे अमेरिका में रहते हैं। हम दोनों ही यहां रहते हैं।
लड़कों से संपर्क बना रहता है। बीच-बीच में हम अमेरिका जाते रहते हैं बच्चों के पास। हमारा जीवन सादा पर स्वतंत्र है।
सामाजिक संपर्क बना रहता है। अपने मन के अनेक शौक पूरे करती हूं और स्वतः के आनंद में रहती हूं।
नमस्कार!
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